सोमवार, 30 जनवरी 2023

उदासी

मैं उस ऑफिस के आखिरी कोने पर बैठता हूं, इतने आखिर में की कभी कभी मेरी भी नजर खुद पर नहीं पड़ती. धूप मुझसे कुछ दूर होती है और मैं उसके बेहद पास, लेकिन जब नजदीकियां ज्‍यादा हो तो बहुत सी चीजें आपकी आंखों से दूर होती हैं. कई बार मैं खो जाता हूं, इतना जितना की कोई आदमी खो सकता है किसी मेले में, किसी शहर में और कभी कभी अपने आप में. कुछ वक्‍त बाद मुझे होश आता है कि हां, कुछ तो है. मेरे जैसा या कि मैं ही. मैं अपने खोने का गम नहीं मनाता और चुपचाप वही करने लगता हूं जो मैं सालों से कर रहा हूं, जो मैं सालों से नहीं करना चाहता. 

कभी कभी लोग मुझसे बात करते हैं और कभी कभी मैं भी. मेरे लिए यह काम सबसे दुश्‍कर होता है. मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, शायद इसलिए क्‍योंकि मैं एक उदासी ओढ़े हूं और अपने ही खोल में रहना चाहता हूं. कभी कभी लगता है कि मैं अस्‍थायी हूं और यह उदासी ही स्‍थायी है. मैं और उदासी जब एकाकार हो जाते हैं, अपने होने का मुझे तभी अहसास होता है. मैं हूं, मैं हूं... यह घनीभूत होती उदासी का परिणाम लगता है. सबसे अच्‍छे काम...  चाहे फिर वो भावुकता में हुए या फिर असीम दुख में, उन सभी की शुरुआत इसी उदासी से हुई है. इसलिए जब भी उदासी हावी होने की कोशिश करती है तो लगता है मैं बेहतर इंसान बनने की ओर जा रहा हूं. कोशिश करता हूं कि यह उदासी कुछ दिन बनी रहे और उम्‍मीद करता हूं कि मेरे इंसान बनने की प्रक्रिया कुछ और तेज हो. 


शुक्रवार, 29 अप्रैल 2022

सांप्रदायिक उन्‍माद के इस दौर में नाउम्‍मीदी से मामूली उम्‍मीद होना बेहतर

सांप्रदायिक दंगों का देश में लंबा इतिहास है. लोग कहते हैं कि इतिहास से सीखना चाहिए, लेकिन सीखता भला कौन है? सांप्रदायिक दंगों में मरने वालों के पक्ष के लोग दर्द में डूब जाते हैं और मारने वाले 'सांस्‍कृतिक गौरव' के नए अध्‍याय में अपना नाम दर्ज करा देते हैं. उस पर कमाल देखिए कि कहते सभी यही हैं कि दंगे में आम आदमी मरता है, लेकिन कोई ये नहीं कहता कि दंगे में लड़ने वाला भी आम आदमी ही होता है. बस लड़ाने वाले ख़ास होते हैं और जिनका कहीं नाम नहीं होता. 

पिछले कुछ सालों में धार्मिक उन्‍माद लगातार बढ़ा है. नेताओं के भड़काऊ बयान और सोशल मीडिया पर हर तरफ फैली नफरत इस जहर को बहुत तेजी से फैला रहे हैं. लोगों को बांटकर अपना फायदा कमाना नेताओं को हमेशा से ही पसंद रहा है. बढ़ती धार्मिक कट्टरता के इस दौर में आम आदमी खुद के लिए प्राथमिकताएं तय नहीं कर पाया है. बहुत से लोगों पर धार्मिक कट्टरता का गहरा असर है और उनकी प्राथमिकताएं धर्म पर आकर टिक गई हैं. भूख, बेरोजगारी जैसी बुनियादी समस्‍याओं से पार पाने की जगह उन्‍हें लगने लगा है कि पहला निशाना उनका धर्म है और दूसरा वो खुद. यही कारण है कि धर्म को लेकर भावनाएं अपने उफान पर हैं. आम आदमी के लिए धर्म से बड़ी अफीम और नेताओं के जहरीले नारों से ज्‍यादा खतरनाक कुछ नहीं है, लेकिन इन्‍हीं को लोग अपना पथ प्रदर्शक मान रहे हैं. 

मैं ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूं जो स्‍वयं को बेहतर तहजीब और संस्‍कारों वाला बताते हैं. उनके लिए बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में उनसे बात करना लगता है जैसे सूरज को दीया दिखाना है. कई बार ऐसे लोग भी धार्मिक उन्‍माद और कट्टरता से लबरेज नजर आते हैं. इसके साथ ही वो भ्रम भी हवा हो जाता है, जिसमें पढ़ा-लिखा होना आपकी सोच को बेहतर बनाता है. बड़ी बड़ी डिग्रियां सांप्रदायिक उन्‍माद के आगे घुटने टेक देती हैं. इसलिए जब आप अपने बच्‍चों को उच्‍च शिक्षा के संस्‍थानों में पढ़ने भेजें तो उन्‍हें कोर्स की किताबों, वॉटसएप और फेसबुक जैसे प्‍लेटफॉर्म्‍स के बजाय अन्‍य किताबें पढ़ना भी जरूर सिखाएं. 

धर्म आक्रामक नारों और दूसरे धर्म की निंदा का नाम बनकर रह गया है. इसीलिए ज्‍यादा धार्मिक आदमी से बचने की सलाह दी जाती है. धार्मिक भावनाएं कब कुलाचें मारती हुई शरीर से बाहर आ जाए और कब किसी दूसरे धर्म के शख्‍स को अपना शिकार बना ले कहा नहीं जा सकता है. धर्म का यह नशा जीवन के रंगों को बदरंग कर रहा है. इसमें सिर्फ आप या मैं शामिल नहीं हूं. हम सभी इसके लिए दोषी हैं. दुनिया को सिर्फ एक धर्म बेहतर नहीं बना सकता है. इसके लिए सभी धर्मों के बने रहने और कट्टरता को छोड़कर साथ आने की जरूरत है. हालांकि वाट्सएप जैसे विश्‍वविद्यालयों से अपनी सोच विकसित करने वालों से उम्‍मीद कम है. फिर भी नाउम्‍मीदी से कुछ उम्‍मीद होना बेहतर है.