मैं उस ऑफिस के आखिरी कोने पर बैठता हूं, इतने आखिर में की कभी कभी मेरी भी नजर खुद पर नहीं पड़ती. धूप मुझसे कुछ दूर होती है और मैं उसके बेहद पास, लेकिन जब नजदीकियां ज्यादा हो तो बहुत सी चीजें आपकी आंखों से दूर होती हैं. कई बार मैं खो जाता हूं, इतना जितना की कोई आदमी खो सकता है किसी मेले में, किसी शहर में और कभी कभी अपने आप में. कुछ वक्त बाद मुझे होश आता है कि हां, कुछ तो है. मेरे जैसा या कि मैं ही. मैं अपने खोने का गम नहीं मनाता और चुपचाप वही करने लगता हूं जो मैं सालों से कर रहा हूं, जो मैं सालों से नहीं करना चाहता.
कभी कभी लोग मुझसे बात करते हैं और कभी कभी मैं भी. मेरे लिए यह काम सबसे दुश्कर होता है. मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं होता, शायद इसलिए क्योंकि मैं एक उदासी ओढ़े हूं और अपने ही खोल में रहना चाहता हूं. कभी कभी लगता है कि मैं अस्थायी हूं और यह उदासी ही स्थायी है. मैं और उदासी जब एकाकार हो जाते हैं, अपने होने का मुझे तभी अहसास होता है. मैं हूं, मैं हूं... यह घनीभूत होती उदासी का परिणाम लगता है. सबसे अच्छे काम... चाहे फिर वो भावुकता में हुए या फिर असीम दुख में, उन सभी की शुरुआत इसी उदासी से हुई है. इसलिए जब भी उदासी हावी होने की कोशिश करती है तो लगता है मैं बेहतर इंसान बनने की ओर जा रहा हूं. कोशिश करता हूं कि यह उदासी कुछ दिन बनी रहे और उम्मीद करता हूं कि मेरे इंसान बनने की प्रक्रिया कुछ और तेज हो.